आँखों की चिकित्सा- भाग 1
जिन की आंखे कमजोर हैं, जिन्हे नजदीक या दूर का चश्मा लगा हुआ है वह यह प्रयोग करे।
ये सभी प्रयोग अनेक बार आजमाए हुए व सुरक्षित हैं। किसी को भी कोई हानी नहीं होगी। लाभ किसी को कम व किसी को अधिक हो सकता है परंतु लाभ सभी को होगा। हो सकता है किसी का चश्मा न उतरे परंतु चश्मे का नंबर जरूर कम होगा। प्रयोग करने से सिर मे दर्द नहीं होगा। बाल दोबारा काले हो जाएगे। बाल झड़ने रूक जाएगे।
खाने की दवाई- गोरखमुंडी एक एसी औषधि है जो आंखो को जरूर शक्ति देती है। अनेक बार अनुभव किया है। आयुर्वेद मे गोरखमुंडी को रसायन कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार रसायन का अर्थ है वह औषधि जो शरीर को जवान बनाए रखे।
प्रयोग विधि- -
1- गोरखमुंडी का पौधा यदि यह कहीं मिल जाए तो इसे जड़ सहित उखाड़ ले। इसकी जड़ का चूर्ण बना कर आधा आधा चम्मच सुबह शाम दूध के साथ प्रयोग करे । इसका चित्र गुगुल पर देखे
2- बाकी के पौधे का पानी मिलाकर रस निकाल ले। इस रस से 25% अर्थात एक चौथाई घी लेकर पका ले। इतना पकाए कि केवल घी रह जाए। यह भी आंखो के लिए बहुत गुणकारी है।
3- बाजार मे साबुत पौधा या जड़ नहीं मिलती। केवल इसका फल मिलता है। वह प्रयोग करे। - प्रयोग विधि- 100 ग्राम गोरखमुंडी लाकर पीस ले। बहुत आसानी से पीस जाती है। इसमे 50 ग्राम गुड मिला ले। कुछ बूंद पानी मिलाकर मटर के आकार की गोली बना ले।
4- यह काम लौहे कि कड़ाही मे करना चाहिए । न मिले तो पीतल की ले। यदि वह भी न मिले तो एल्योमीनियम कि ले। जो अधिक गुणकारी बनाना चाहे तो ऐसे करे। 300 ग्राम गोरखमुंडी ले आए।लाकर पीस ले । 100 ग्राम छन कर रख ले। बाकी बची 200 ग्राम गोरखमुंडी को 500 ग्राम पानी मे उबाले। जब पानी लगभग 300 ग्राम बचे तब छान ले। साथ मे ठंडी होने पर दबा कर निचोड़ ले। इस पानी को मोटे तले कि कड़ाही मे डाले। उसमे 100 ग्राम गुड कूट कर मिलाकर धीमा धीमा पकाए। जब शहद के समान गाढ़ा हो जाए तब आग बंद कर दे। जब ठंडा जो जाए तो देखे कि काफी गाढ़ा हो गया है। यदि कम गाढ़ा हो तो थोड़ा सा और पका ले। फिर ठंडा होने पर इसमे 100 ग्राम बारीक पीसी हुई गोरखमुंडी डाल कर मिला ले। अब 50 ग्राम चीनी/मिश्री मे 10 ग्राम छोटी इलायची
मिलाकर पीस ले। छान ले। हाथ को जरा सा देशी घी लगा कर मटर के आकार कि गोली बना ले। गोली बना कर चीनी इलायची वाले पाउडर मे डाल दे ताकि गोली सुगंधित हो जाए। 3 दिन छाया मे सुखाकर प्रयोग करे। इलायची केवल खुशबू के लिए है। प्रयोग विधि – 1-1 गोली 2 समय गरम दूध से हल्के गरम पानी से दिन मे 2 बार ले। सर्दी आने पर 2-2 गोली ले सकते हैं। इसका चमत्कार आप प्रयोग करके ही अनुभव कर सकते हैं। आंखे तो ठीक होंगी है रात दिन परिश्रम करके भी थकावट महसूस नहीं होगी। कील, मुहाँसे, फुंसी, गुर्दे के रोग सिर के रोग सभी मे लाभ करेगी। जिनहे पेशाब कम आता है या शरीर के किसी हिस्से से खून गिरता है तो ठंडे पानी से दे। इतनी सुरक्षित है कि गर्भवती को भी दे सकते हैं। ध्यान रहे 2-4 दिन मे कोई लाभ नहीं होगा। लंबे समय तक ले । गोली को अच्छी तरह सूखा ले। अन्यथा अंदर से फफूंद लग जाएगी।
ध्यान रहे- ये पाचन शक्ति बढ़ाती है इसलिए भोजन समय पर खाए। चाय पी कर भूख खत्म न करे। चाय पीने से यह दवाई लाभ के स्थान पर हानि करेगी।
प्रायः निम्नलिखित कारणों से नेत्ररोग उत्पन्न होते हैं -
(१) मल, मूत्र अपानवायु के वेगों को रोकना ।
(२) प्रातः और सायं दोनों समय शौच न जाना ।
(३) सूर्योदय के पश्चात् शौच जाना ।
(४) मूत्र में प्रतिविम्ब देखना ।
(५) गर्मी वा धूप से संतप्त (गर्म) होकर तुरन्त ही शीतल जल में घुसना ।
(६) उष्ण वा गन्दे जल में स्नान करना वा उष्ण (गर्म) जल सिर पर डालना ।
(७) अग्नि का अधिक सेवन तथा उसके पास बैठना वा अग्नि पर पैर तलवे आदि सेकना ।
(८) नेत्रों में धूल वा धुंआं जाना ।
(९) नींद आने पर वा समय पर न सोना वा दिन में सोना ।
(१०) सूर्य के उदय और अस्त होते समय सोना ।
(११) धूल, धुएं के स्थान वा अधिक उष्ण प्रदेशों में रहना वा सोना ।
(१२) वमन (उल्टी) का वेग रोकना वा अधिक वमन करना ।
(१३) शोक, चिन्ता और क्रोधजन्य कष्ट और सन्ताप ।
(१४) अधिक वा बहुत दिनों तक रोना ।
(१५) माथा, सिर अथवा चक्षुओं पर चोट आदि लगना ।
(१६) अधिक उपवास करना, भूखा रहना वा भूख को रोकना ।
(१७) अत्यन्त शीघ्रगामी (चलने वाले) यानों पर सवारी करना वा बैठना ।
(१८) अधिक खट्टे रसों (इमली आदि), चपरे (लाल मिर्च आदि), शुष्क पदार्थ (आलू आदि), अचार, तेल के पदार्थ, गर्म मसाले, गुड़, शक्कर, लहसुन, प्याज, बैंगन आदि उष्ण पदार्थों का सेवन ।
(१९) पतले पदार्थों को अधिक खाना अथवा गले, सड़े, दुर्गन्धयुक्त शाक, सब्जी और फल खाना ।
(२०) मांस, मछली, अण्डे आदि अभक्ष्य पदार्थों को खाना ।
(२१) मद्य (शराब), सिगरेट, हुक्का, बीड़ी, चाय, पान, भांग आदि मादक
(२३) छोटे-छोटे अक्षरों की वा अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें रात्रि वा दिन में भी अधिक पढ़ना ।
(२४) सूर्य उदय व अस्त होते समय पढ़ना ।
(२५) सूर्यास्त के बाद बिना दीपक आदि के प्रकाश के पढ़ना अथवा सूई से सीना आदि बारीक कार्य करना ।
(२६) चन्द्रमा के प्रकाश में पढ़ना अथवा कपड़े आदि सीने का बारीक काम करना ।
(२७) रात्रि में लिखाई का काम करना ।
(२८) फैशन के कारण (सुन्दर बनने के लिए) आंखों पर नयनक वा चश्मे धारण करना ।
(२९) दुखती हुई आंखों से पढ़ना और सूर्य की ओर देखना ।
(३०) सुलाने के लिए बच्चों को अफीम खिलाना ।
(३१) बिजली, बैट्री, अग्नि, पानी, शीशे की चमक को देखना ।
(३२) सूर्य के प्रतिबिम्ब को शीशे में देखना ।
(३३) अधिक भोजन करना ।
(३४) जुराब पहनकर या बन्द मकान में सोना ।
(३५) दुखती हुई आंखों में चने चबाना अथवा अग्नि के सम्मुख बैठना वा देखना, धूल व धूएं में तथा धूप में (हल आदि का) कठिन काम करना ।
(३६) सूर्यग्रहण के समय सूर्य की ओर देखना ।
(३७) इन्द्रधनुष की ओर देखना ।
(३८) ऋतुओं और अपनी प्रकृति के प्रतिकूल आहार वयवहार (भोजन-छादन) करना ।
गृहस्थ ध्यान से पढ़ें
(३९) दुखती हुई आंखों में विषय भोग (वीर्यनाश) करने से आंखें सदा के लिए बिगड़ जाती हैं । यहां तक कि अन्धा हो जाने तक का भय है ।
(४०) रजस्वला स्त्री के शीशे में मुख देखने तथा आंखों में सुर्मा, स्याही, अञ्जन आदि डालने से अन्धा बालक उत्पन्न होता है ।
(४१) गर्भवती स्त्री के उष्ण, चरपरे, शुष्क, मादक (नशीले) पदार्थों के सेवन तथा विषयभोग से उत्पन्न होने वाले बालक की आंखें बहुत दुखती हैं तथा उसे अन्य रोग भी हो जाते हैं ।
४. नेत्र-रक्षा के साधन
यदि आंखों से प्यार है तो पूर्वलिखित निषिद्ध आहार व्यवहार से सदैव बचे रहो तथा निम्नलिखित नेत्र-रक्षा के उपायों (साधनों) का श्रद्धा से सेवन करो । प्रत्येक उपाय हितकर है किन्तु यदि सभी उपायों का एक साथ प्रयोग करें तो सोने पर सुहागा है ।
चक्षु स्नान
प्रातःकाल चार बजे उठकर ईश्वर का चिन्तन करो । फिर शुद्ध जल, जो ताजा और वस्त्र से छना हुआहो, लेकर इससे मुख को इतना भर लो कि उसमें और जल न आ सके अर्थात् पूरा भर लो । इस जल को मुख में ही रखना
है, साथ ही दूसरे शुद्ध जल से दोनों आंखों में बार-बार छींटे दो जिससे रात्रि में शयन समय जो मैल अथवा उष्णता आंखों में आ जाती है वह सर्वथा दूर हो जाय । इस प्रकार इस क्रिया से अन्दर और बाहर दोनों ओर से चक्षु इन्द्रिय को ठंडक पहुंचती है । निरर्थक मल और उष्णता दूर होकर दृष्टि बढ़ती है । इस क्रिया को प्रतिदिन करना चाहिये ।
उषः पान
इसके पश्चात् कुल्ली करके मुख नाक आदि को साफ कर लो और नाक के एक वा दोनों छिद्रों द्वारा ही आठ दस घूंट जल पी लो और लघुशंका करके शौच चले जाओ । नाक के द्वारा जल पीने से जहां अजीर्ण (कोष्ठबद्धता) दूर होकर शौच साफ होता है वहां यह क्रिया अर्श (बवासीर), प्रमेह, प्रतिश्याय (जुकाम) आदि रोगों से बचाती और आंखों की ज्योति को बढ़ाती है ।
अन्य उपाय सं० १
(१) शौच प्रतिदिन दूर जंगल में प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में नंगे पैर (बिना जूते पहने) जाओ । भ्रमण वा शौच के समय जूता, जुराब, खड़ाऊं और चप्पल आदि कुछ भी न पहनो । शीत, ग्रीष्म, वर्षा सभी ऋतुओं में नंगे पैरों भ्रमण करने से सब प्रकार के नेत्ररोग नष्ट होकर नेत्रज्योति बढ़ती है । किन्तु भ्रमण से अभिप्राय गन्दी गलियों से नहीं है । भ्रमण का स्थान शुद्ध हो । नंगे पैर ओस पड़ी हुई घास पर घूमना तो अत्यन्त ही लाभदायक है । सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात् भी नंगे पैर जंगल में भ्रमण करना आंखों के लिए लाभदायक है ।
(२) प्रातःकाल और सायंकाल हरी घास देखो । फसल, वृक्षों तथा पादपों को देखने से चक्षुदृष्टि बढ़ती है । हरे भरे उद्यानों में यदि कोई दुखती हुई आंखों में भी भ्रमण करे तो उनमें भी लाभ होता है । हरी वस्तुओं को देखने से चक्षुविकार नष्ट होकर नेत्रज्योति बढ़ती है यह बात साधारण लोग भी जानते हैं । प्राचीन महर्षियों की यह बात कितनी रहस्यपूर्ण है ! ब्रह्मचारी के लिए प्रत्येक ऋतु में नंगे सिर रहना यही सिद्ध करता है कि प्रकृति माता की गोद में ब्रह्मचारी के
सब अंग-प्रत्यंगों की, सब ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की स्वाभाविक दृष्टि (उन्नति) होकर वह आजीवन रोगरहित और स्वस्थ रहे ।
दन्तधावन
शौच से निवृत होकर दातुन अवश्य करो । यही नहीं कि दातुन से दांत ही निर्मल, दृढ़ और स्वस्थ होते हैं अपितु प्रतिदिन दन्तधावन करनेवालों की आंखें सौ वर्ष तक रोगरहित रहती हैं । जब मुख में दातुन डालकर मुख साफ करते हैं तो उसी समय आंखों में से जल के रूप में मल निकलता है जिससे आंखों की ज्योति बढ़ती है ।
चक्षुधावन
दातुन के पश्चात् कुल्ला करके एक खुले मुंह का जलपात्र लें और उसको ऊपर तक शुद्ध जल में भर लें । उसमें अपनी दोनों आंखों को डुबोवें और बार-बार आंखों को जल के अन्दर खोलें और बन्द करें । इस प्रकार कुछ देर तक चक्षुस्नान करने से आंखों को बहुत ही लाभ होगा । इस चक्षुस्नान की क्रिया को किसी शुद्ध और निर्मल जल वाले सरोवर में भी किया जा सकता है । यह ध्यान रहे कि मिट्टी, धूल आदि मिले हुए जल में यह क्रिया कभी न करें, नहीं तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी ।
जलनेति सं० १
शुद्ध, शीतल और ताजा जल लेकर शनैः शनैः नासिका के दोनों द्वारों से पीयें और मुंह से निकाल दें । दो-चार बार इस क्रिया को करके नाक और मुंह को साफ कर लो ।
जलनेति सं० २
किसी तूतरीवाले (टूटीदार) पात्र में जल लें और टूटी को बायें नाक में लगायें । बायें नाक को थोड़ा सा ऊपर को कर लें और दायें को नीचे को झुकायें और मुख से श्वास लें । बायें नासिका द्वार में डाला हुआ जल दक्षिण नासिका
के छिद्र से स्वयं निकलेगा । इसी प्रकार दायें नाक में डालकर बायें से निकालो । यह ध्यान रहे कि बासी और शीतल जल से नेति कभी न करें । उष्ण जल का भी प्रयोग नेति में कभी न करें । आरम्भ में इस क्रिया को थोड़ी देर करो, फिर शनैः शनैः बढ़ाते चले जाओ । यह क्रिया आंखों की ज्योति के लिये इतनी लाभदायक है कि इसका निरन्तर श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास करने से ऐनकों की आवश्यकता नहीं रहती । चश्मे उतारकर फेंक दिये जाते हैं । कोई सुरमा, अंजन आदि औषध इससे अधिक लाभदायक नहीं । जहां यह क्रिया चक्षुओं के लिए अमृत संजीवनी है, वहां यह प्रतिश्याय (जुकाम) को भी दूर भगा देती है । जो भी इसे जितनी श्रद्धापूर्वक करेगा उतना ही लाभ उठायेगा और ऋषियों के गुण गायेगा ।
जलनेति से किसी प्रकार की हानि नहीं होती । यह मस्तिष्क की उष्णता और शुष्कता को भी दूर करती है । सूत्रनेति (धागे से नेति करना) शुष्कता लाती है किन्तु जलनेति से शुष्कता दूर होती है । सूत्रनेति इतनी लाभदायक नहीं जितनी कि जलनेति । जलनेति से तो मस्तिष्क अत्यन्त शुद्ध, निर्मल और हल्का हो जाता है । इससे और भी अनेक लाभ हैं ।
जलनेति सं० ३
जलनेति का एक दूसरा प्रकार भी है –
मुख को जल से पूर्ण भर लो और खड़े होकर सिर को थोड़ा सा आगे झुकाओ और शनैः शनैः नासिका द्वारा श्वास को बाहर निकालो । वायु के साथ जल भी नाक के द्वारा निकलने लगेगा । जिह्वा के द्वारा भी थोड़ा सा जल को धक्का दें । इस प्रकार अभ्यास से जल दो-चार दिन में नाक से निकलने लगेगा । इस क्रिया से भी उपरोक्त जलनेति वाले सारे लाभ होंगे । किसी प्रकार का मल भी मस्तिष्क में न रहेगा । आंखों के सब प्रकार के रोग दूर होकर ज्योति दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जावेगी । इसके पश्चात् शुद्ध शीतल जल से
स्नान करें । पहले जल सिर पर डालें । जब सिर खूब भीग जाय तो फिर अन्य अंगों पर डालें । नदी में स्नान करना हो तो भी पहले सिर धो लें ।
अन्य उपाय सं० २
(१) स्नान के समय सिर से पहले पैरों को शीतल जल से कभी न धोवो । यदि स्नान करते समय पांवों को पहले भिगोवोगे तो नीचे की उष्णता मस्तिष्क में चढ़ जायेगी । यह ध्यान रक्खो कि सदैव शीतल जल से स्नान करो और सिर पर शीतल जल खूब डालो । यदि दुर्भाग्यवश रुग्णावस्था में उष्ण जल से नहाना पड़े तो पहले पैरों पर डालो । सिर को ठंडे जल से ही धोवो । नाभि के नीचे मसाने और मूत्रेन्द्रिय पर भी उष्ण जल कभी मत डालो
(२) सिर में किसी प्रकार का मैल न रहने पाये ।
(३) निरर्थक फैशन के पागलपन में सिर पर बड़े-बड़े बाल न रक्खो । इनमें धूल आदि मैल जम जाता है और स्नान भी भली-भांति नहीं हो सकता । बालों से मस्तिष्क, बुद्धि और आंखें खराब होती हैं । उष्ण प्रदेश और उष्णकाल में बाल अत्यन्त हानिकारक हैं । अतः इस बला से बचे रहो जिससे कि स्नान का लाभ शरीर और चक्षुओं को पूर्णतया पहुंच सके ।
(४) शुद्ध सरोवर वा नदी में नहाने वा तैरने से भी चक्षुओं को बड़ा ही लाभ होता है । स्नान का स्नान और व्यायाम का व्यायाम । पर्याप्त समय शुद्ध जल में प्रतिदिन तैरने से चक्षु और वीर्यसम्बन्धी सभी रोग दूर हो जाते हैं । तैरने के समय चक्षुस्नान के लिए भी बड़ी सुविधा है । किन्तु जल निर्मल हो । यदि नदी और सरोवर सुलभ न हो तो कूप पर पर्याप्त जल से शीतकाल में न्यून से न्यून एक बार और उष्ण ऋतु में दो बार अवश्य स्नान करो । जल के निकालने और बर्तने में आलस्य और लोभ न करो । जल की महिमा वेद भगवान् ने भी खूब गाई
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